विचार चिंतन -संजा(छाबड़ी)
दोस्तों आज पंचमी ,छठ तिथि है संजा का स्वरूपआद्यात्मिक है संजा सामान्य जीवन में मानवीय मनोविकारों से परे आत्मसंयम से जीवन जीने की कलासाधना है ...
आज का मांडना -पाँच कुँवारा और छाबड़ी
आज का गीत - जीवन में आत्म संयम
आज का गीत- म्हारो गुल्यो म्हारो गुल्यो सेरी न मs जाय रे भाई सेरी मुड़यो कांटो नावी घर जाय रे भाई ,
नावी नs दिया फुलड़ा देव खs चढाव न जाय रे भाई,
देव न दिया लाड़वा,मगरs बठ्यो कागलो काव कांव करतो जाय रे भाई
पाय मs बन्ध्या मुस्ळा धमधम करता जाय
हाथ म बन्ध्या घुघरा छम छम करता जाय
कान म बांध्या सूपड़ा फटफट करता जाय
आँख म बांधी कवड़ी कटकट करती जाय
नाक म बांधी उन्दरी चाउ चाउ करती जाय रे भाई...
गीत का भाव -संजा के गीतों में हास्य है ।संजा का गुल्या (मस्करी करने वाला) गली में घूमता है तो पैर में कांटा चुभ जाता है वो नाई के पास कांटा निकलवाने जाता है नाई उसे फूल देते है वो फूल वो ईश्वर को अर्पित करता है ईश्वर उसे लड्डुओं देते है ... दीवाल पर बैठा कव्वा काव काव में कहता है पैरों में मूसल थे धमधम चलता था हाथो में घुघरू थे छमछम बजते कान सुप की तरह फटफट तो आखो में कौड़ी है जो कटकट करती है नाक की चुहिया चाऊ चाऊ करती है
गीत के भाव - संजा के गीतों में हास परिहास है तो जीवन का गाम्भीर्य भी है संजा मानवीय मनोविकारों से परे इन्द्रिय संयम को साधना सिखाती है जहाँ जीव तत्व में छुपे वो मस्करे गुल्या के पाँच कुँवारे पांच इन्द्रिय -हाथ ,पैर ,कान, आँख, नाक , का मस्कारपन का शूल निकल जाने पर व दिए गए संयम के फूलो को ईश्वरीय सेवा में अर्पित करने पर ईश्वर दवारा जीव तत्व को मीठे लड्डुओं की प्राप्ति होती है. जो जीवन को समाधिस्त जीवन की ओर जीने के लिए अभिप्रेरित करती है और यही से शुरू होता है 'शून्य से शून्य 'का सफर जो 'छाबड़ी' बन वर जाता है.....
"संयम से समाधी"की जीवन साधना में आज बस इतना ही फिर मिलेगे...
संजा के आद्यात्मिक सफर में आत्मसाधक बनने के लिये आपका का साधुवाद।
दोस्तों आज पंचमी ,छठ तिथि है संजा का स्वरूपआद्यात्मिक है संजा सामान्य जीवन में मानवीय मनोविकारों से परे आत्मसंयम से जीवन जीने की कलासाधना है ...
आज का मांडना -पाँच कुँवारा और छाबड़ी
आज का गीत - जीवन में आत्म संयम
आज का गीत- म्हारो गुल्यो म्हारो गुल्यो सेरी न मs जाय रे भाई सेरी मुड़यो कांटो नावी घर जाय रे भाई ,
नावी नs दिया फुलड़ा देव खs चढाव न जाय रे भाई,
देव न दिया लाड़वा,मगरs बठ्यो कागलो काव कांव करतो जाय रे भाई
पाय मs बन्ध्या मुस्ळा धमधम करता जाय
हाथ म बन्ध्या घुघरा छम छम करता जाय
कान म बांध्या सूपड़ा फटफट करता जाय
आँख म बांधी कवड़ी कटकट करती जाय
नाक म बांधी उन्दरी चाउ चाउ करती जाय रे भाई...
गीत का भाव -संजा के गीतों में हास्य है ।संजा का गुल्या (मस्करी करने वाला) गली में घूमता है तो पैर में कांटा चुभ जाता है वो नाई के पास कांटा निकलवाने जाता है नाई उसे फूल देते है वो फूल वो ईश्वर को अर्पित करता है ईश्वर उसे लड्डुओं देते है ... दीवाल पर बैठा कव्वा काव काव में कहता है पैरों में मूसल थे धमधम चलता था हाथो में घुघरू थे छमछम बजते कान सुप की तरह फटफट तो आखो में कौड़ी है जो कटकट करती है नाक की चुहिया चाऊ चाऊ करती है
गीत के भाव - संजा के गीतों में हास परिहास है तो जीवन का गाम्भीर्य भी है संजा मानवीय मनोविकारों से परे इन्द्रिय संयम को साधना सिखाती है जहाँ जीव तत्व में छुपे वो मस्करे गुल्या के पाँच कुँवारे पांच इन्द्रिय -हाथ ,पैर ,कान, आँख, नाक , का मस्कारपन का शूल निकल जाने पर व दिए गए संयम के फूलो को ईश्वरीय सेवा में अर्पित करने पर ईश्वर दवारा जीव तत्व को मीठे लड्डुओं की प्राप्ति होती है. जो जीवन को समाधिस्त जीवन की ओर जीने के लिए अभिप्रेरित करती है और यही से शुरू होता है 'शून्य से शून्य 'का सफर जो 'छाबड़ी' बन वर जाता है.....
"संयम से समाधी"की जीवन साधना में आज बस इतना ही फिर मिलेगे...
संजा के आद्यात्मिक सफर में आत्मसाधक बनने के लिये आपका का साधुवाद।
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